देश का शासक और राम राज्य की स्थापना,क्या आज के भारत में आदर्श शासन संभव है ?
भारत में नेतृत्व, नैतिकता और सुशासन पर बहस हमेशा से चली आती रही, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में यह प्रश्न और भी प्रासंगिक हो गया है—क्या आज का शासक राम जैसे आदर्शों पर आधारित “राम राज्य” की स्थापना कर सकता है?
राम राज्य केवल एक धार्मिक अवधारणा नहीं, बल्कि एक राजनीतिक आदर्श है—जहाँ न्याय, समानता, सुरक्षा, पारदर्शिता और जनकल्याण शासन की धुरी हों। राम का नेतृत्व नैतिकता और जन-विश्वास पर टिका था, न कि सत्ता और अहंकार पर। आज के समय में, राजनीति ध्रुवीकरण, आरोप-प्रत्यारोप, भ्रष्टाचार के आरोपों और जातीय समीकरणों से घिरी हुई है, यह तुलना हमें सोचने पर मजबूर करती है।
आज का भारत विशाल चुनौतियों से गुजर रहा है—बेरोजगारी, सामाजिक तनाव, आर्थिक असमानता, किसानों की दिक्कतें, डिजिटल युग के खतरे और वैश्विक राजनीति का दबाव। ऐसे माहौल में राम राज्य का अर्थ केवल धार्मिक आदर्श नहीं, बल्कि उत्तम प्रशासन की वह परिकल्पना है जो हर नागरिक को समान अवसर दे और शासन को जवाबदेह बनाए।
राम राज्य में—राजा पहले सेवक था, शासक बाद में।
निर्णय लोक कल्याण पर आधारित होते थे, न कि व्यक्तिगत छवि पर। न्याय इतना पारदर्शी था कि राजा स्वयं भी उसके नियमों से ऊपर नहीं था। जनता की पीड़ा राजा की अपनी पीड़ा मानी जाती थी।
आज की राजनीति में यह भाव कितना बचा है—यह प्रश्न सबके लिए खुला है। लोकतंत्र में शासक जनता से चुना जाता है, परंतु लोकलुभावनता और वास्तविक कल्याण के बीच फर्क धुंधला होता जा रहा है। बेहतर सड़कें, योजनाओं की घोषणाएँ और बड़े-बड़े वादे तभी अर्थपूर्ण हैं जब अंतिम व्यक्ति तक उनका लाभ पहुँचे—जिसे राम राज्य में “अंत्योदय” की भावना कहा गया है।
यदि आज का नेतृत्व राम के आदर्शों से सीखना चाहे तो उसे—
सत्ता को नहीं, सेवा को प्राथमिकता देनी होगी,आलोचना से बचने के बजाय उसे स्वीकारना होगा,कानून को सभी के लिए समान बनाना होगा,और जनहित को राजनीति से ऊपर रखना होगा।
भारत ने कई क्षेत्रों में प्रगति की है, परंतु राम राज्य सिर्फ विकास का नहीं, चरित्रवान शासन का आदर्श है। यह तभी संभव है जब शासक और नागरिक दोनों अपनी जिम्मेदारी समझें।
आज आवश्यकता इस बात की है कि सत्ता में बैठा हर व्यक्ति स्वयं से पूछे—i
“क्या मेरा शासन जनता की भलाई पर आधारित है या केवल सत्ता के विस्तार पर?”
राम राज्य की परिकल्पना एक स्मृति नहीं, बल्कि एक दिशा है—जिसकी ओर बढ़ने का प्रयास ही राष्ट्र को मजबूत बनाता है।
