✒️ The struggle of print vs digital
noise –
आज जब कलम को बाजारों में बदनाम होते देखा ,

आज जब कलम को बाजारों में बदनाम होते देखा ,
कलम खुद चल पड़ी अपनी लाज बचाने ।। “कलमवंश”
आज यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि कुछ गिने-चुने तत्वों ने पत्रकारिता को बदनाम करने का षड्यंत्र रच दिया है।
सोशल मीडिया का तात्कालिक शोर जनता को पलभर में भ्रमित कर देता है, जबकि प्रिंट मीडिया गहन पड़ताल और जिम्मेदारी से सत्य प्रस्तुत करता है। दुर्भाग्यवश, जनता इस अंतर को भूल चुकी है और असत्य को ही सत्य मानकर अपने जीवन को प्रभावित कर रही है।
❌ इससे होने वाले बड़े खतरे
1 सरकार की विश्वसनीयता पर चोट
जब असत्य खबरें और अधूरी जानकारियाँ वायरल होती हैं, तो जनता धरातल पर सरकार को कटघरे में खड़ा कर देती है।
चाहे सरकार ने सही निर्णय लिया हो, लेकिन असत्य प्रचार उसे हमेशा “गलत” और “विफल” साबित कर देता है।
2 देश में अराजकता का माहौल
गलत सूचनाएँ दंगे, विरोध, अविश्वास और सामाजिक तनाव को जन्म देती हैं।
असत्य पर आधारित बहसें न केवल समाज को भ्रमित करती हैं बल्कि प्रशासनिक निर्णयों को भी कमजोर कर देती हैं।
3 नीतियों पर अविश्वास
जब जनता सच्चाई तक नहीं पहुँच पाती तो वह सरकार की हर योजना को शक की नजर से देखने लगती है।
इससे विकास की गति रुकती है और लोकतंत्र कमजोर पड़ता है।
⚠️ सरकार के लिए चेतावनी
यदि इस पर समय रहते विचार नहीं किया गया, तो जनता का भरोसा लगातार टूटेगा, लोकतांत्रिक व्यवस्था खोखली होगी और सरकार हर बार असत्य के कारण धरातल पर जवाबदेह न होकर “कटघरे में खड़ी” दिखेगी।
पत्रकारों का संगठन + सरकार की दूरदृष्टि = सत्य और लोकतंत्र की रक्षा
इसी समन्वय से देश की पत्रकारिता, समाज और शासन – तीनों को सुरक्षित किया जा सकता है ।
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